कांतारा: संघर्ष की एक अद्भुत कहानी….कन्नड़ फिल्म “कांतारा” एक प्रमुख उदाहरण है कि भारतीय सिनेमा बहुत समृद्ध है…!

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लिख रहे है भारतीय सिनेमा के ज्येष्ठ समीक्षक, लेखक, पटकथाकार श्री. संजय खरात (भारतीय ) जी| SWA सदस्यता क्रमांक: 040045

कन्नड़ फिल्म “कांतारा” को अब हिंदी में डब करके सिनेमाघरों में रिलीज कर दिया गया है ताकि हर कोई इसे समझ सके।

सिनेमा में ये एक असाधारण शक्ति है जो आपको अपने सभी दुखों को कुछ देर के लिए भूल जाने पर मजबूर कर देती है।  यह स्थिति जानकर, हाल ही में कुछ चालाक राजनेता राजनीतिक लाभ के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि सिनेमा एक भारतीय व्यक्ति की बुनियादी जरूरत है…भले ही ये जरूरत मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने गरीब लोगों से छीनने का एक व्यवस्थित पूंजीवादी प्रयास किया है। फिर भी भारतीय लोग हैं इसे उसी तरह से देखना और महसूस करना जैसे भी हो वैसे कर ही लेते है.

भारत में सभी सुपरडुपर हिट फिल्में यहां आम आदमी की दुनिया के बारे में सोचकर बनाई जाती हैं … और “संघर्ष” हमेशा हर फिल्म में आता है लेखक-निर्देशक इसे अपने तरीके से प्रस्तुत करते हैं..लेकिन उनके कथानक का मूल है ” उचले स्तर और नीचे के स्तर ” इस सामाजिक वर्ग में आने वाले संघर्ष के ही अवशेष होते है ।

हालांकि फिल्म “कांतारा” सिनेमा में उसी संघर्ष को उजागर करती है, लेकिन इसकी ट्रीटमेंट नई है।  सभी किरदारों की एक्टिंग भी यादगार बन गई है.

हालांकि फिल्म की टाइम लाइन बहुत लंबी है, पीढ़ियों की इस  कहानी में लगातार पर्दे पर कुछ न कुछ हो रहा है और दर्शक इसमें अपने आप को उलझाते रहते है…कहानी एक छोटे से काल्पनिक साम्राज्य में घटती है और एक समय में एक गाँव जहाँ एक राजा है, जो आध्यात्मिक संतुष्टि और खुशी की तलाश में है। घर छोड़कर वह एक जंगल में आता है जहाँ उसे एक दिव्य पत्थर दिखाई देता है और एक अद्भुत अनुभूति होती है। राजा परमात्मा को उस आध्यात्मिक भावना के बारे में बताता है जिसे उसने अनुभव किया है, और जो उसके पास है वह सुख मिला जिसे वह यहाँ खोज रहा था, लेकिन परमात्मा का पुजारी राजा से कहता है कि यदि आप इस सुख और संतुष्टि को चाहते हैं, तो मैं हमेशा के लिए आपके साथ रहने के लिए तैयार हूं, लेकिन मेरी कुछ शर्तें हैं और आप केवल अगर वे पूरी होती हैं, तो मैं सब कुछ रखूंगा आपकी आने वाली पीढि़यां सुखी हों… मेरी पहली शर्त है कि जहां तक ​​मेरी आवाज सुनाई दे, मैं जोर जोर से चिल्लाऊंगा और तुम्हें वहाँ तक कि जमीन गांव को दानकर्म  में देना होगा और अगर मैं तुम्हारे साथ आऊं, तो “गुलिका” (‘राक्षस’ जो उसी को भी दंड देता है जो पाप करता है या भगवान के वचन को तोड़ता है) वह भी मेरे साथ आएगा … मैं एक बार गलती को माफ कर देता हूं लेकिन “गुलिका” नही…वह पापी पर कठोर शासन करेगी… राजा अपने स्वार्थ के लिए उस भगवान की सभी शर्तों को स्वीकार करता है और भगवान राज्य में रहने के लिए आते हैं… बाद की पीढ़ियां बदलती हैं, समय बदलता है लेकिन यह भगवान हमेशा रहता है गांव में एक विशेष परिवार के शरीर में ग्रामीणों के कल्याण के बारे में पूछताछ करने के लिए .. उसकी समस्याओं को हल करने के लिए।  फिल्म आगे बढ़ती है

१९७० में, उसी राजा की पीढ़ी का एक आदमी जो अब गांव का एक युवा जमींदार है, उस पूरी जमीन को हड़पने का कानूनी प्रयास करने जाता है जो की उसके पूर्वजो ने दान की थी…और ऋषभ शेट्टी का चरित्र “शिवा”  उसके जो पिता है, उनके शरीर मे “दैवा” का वास है और वह परिवार का मुखिया है…जब उन्हें इस बारे में पता चलता है, तो पूजा के समय दैव के बजाय गुलिका उनकी शरीर मे प्रवेश करती है और जमींदार से कहती है कि “अगर तुम कल अदालत में जाओगे, तो तुम कोर्ट की सीढि़यां चढ़ने से पहले ही मर जाओगे”.. तब आधुनिक विचार के  जमींदार ये सब कुछ नही मानते है लेकिन गुलिका उससे कहता है कि जिस व्यक्ति के शरीर में मैं प्रवेश करता हूं वह भी उसके सांसारिक जीवन के अंत में समा हो जाता है और वह फिर किसी को दिखाई नही देता… यह कहकर वह जंगल में भाग जाता है और गायब हो जाता है.. उसे कोई फिर नहीं देख पाता और परिणामस्वरूप जमींदार लेकिन अदालत में जाने से पहले वह खून की उल्टी कर देता है सीढि़यों  और गिर कर मर जाता है.

फिल्म का समय और २० साल आगे बढ़ता है  १९९० नन्हा “शिवा” अब बड़ा हो गया है लेकिन वह अपने पिता की विरासत है यानी अपने शरीर में।  वह भगवान को प्रवेश करने की अनुमति देने के लिए मना करता है लेकिन उसका छोटा भाई ऐसा करना शुरू कर देता है लेकिन यहां दैवा “शिवा” के सपनों में बार-बार आते रहते हैं… अब उन्हीं जमींदारों का पुत्र जो कि लोगों द्वारा सम्मानित है वह भी यह सोचता है कि उसके पिता की मृत्यु इन गांववालो की वजह से हुई है, वह मीठा बोलकर बदला लेने की सोचता है और शिवा के भाई को भी मार डालता है… गांववालों को धोखा देकर, वह उनसे कागज पर नकली अंगूठे के निशान लेता है..और यहां से फिल्म के आखिरी २०-२५ मिनट दर्शकों को एक अलग एहसास अनुभूति देती हैं…. आप बिना पलक झपकाए स्क्रीन पर अपनी नजरें टिकाए रखते हैं…जिस तरह से ऋषभ शेट्टी ने अभिनय कीया है। पर्दे पर यह संघर्ष न केवल एक निर्देशक के रूप में उनकी प्रतिभा को दिखा रहा है, बल्कि वह जिस ऊंचाई तक अपने अभिनय को ले गया है… उसे देखना एक अलग तरह का जबरदस्त अनुभव है…हमारी संस्कृति के प्रतीकों का इतनी चतुराई से उपयोग किया जाता है कि यह पहले कभी सिनेमा जगत में हुआ नही है।

हालांकि फिल्म “कांतारा” एक जमींदार और ग्रामीणों के बीच संघर्ष के बारे में है, इसमें कई ऐसी बाते हैं जो सांप्रदायिक जातिवादी मानसिकता को दर्शाती हैं…सिनेमा के अंतिम टकराव में, कुर्सी पर बैठकर गांव वालों को एक-एक करके अपनी बंदूक से गोली मारते हुए.. जमींदार को दिखाया गया है उस समय अगर गोली अपनी तरफ से लड़ रहे व्यक्ति को भी लगे, तो उसे इसकी परवाह नहीं है क्योंकि जमींदारों के पास है समाज के दो गरीब बहुजन वर्गों ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अपने पैसे की ताकत से लड़ा रहा है इसलिए किसी के मरने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह न तो उसके बराबर है और न ही उसकी जाति का ।  यह एक स्वार्थी हीन मानसिकता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही पूंजीवादी हीनता को दर्शाती है…. साथ ही कौर्यों की सीमाएँ ऐसी हैं कि एक छोटा बच्चा भी जमींदारों द्वारा अपनी बंदूकों से सिर्फ इसलिए मारा जा सकता है क्योंकि वह बच्चा कल इस जमीन को वापस मांगने के लिए उठ खड़ा होगा… और वह शिवा और जमींदार का निम्न मानसिकता के साथ संघर्ष कि वह जिस वर्ग में पैदा हुआ है, उसे जमीन बनाए रखने का कोई अधिकार उसे नहीं है, हमारे समाज में लंबे समय से यह चल रहा है और सिनेमा में भी….आज भी चल रहा है…बस उसका रूप बदल गया है…!!

हर किसी को फिल्म “कांतारा” जरूर देखनी चाहिए… क्योंकि इसका हर फ्रेम आपको एक सर्वोच्च कलात्मक एहसास आपको देता है उसमे यह फ़िल्म सफल हुई है इसमें कोई संदेह नही ।

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